निशित, दादा जी और नौकरी...
निशित की कहानी, जिसे उसके दादाजी ने बताया कि अपने हुनर को बेड़ियों में मत जकड़ो।
'निशित एक दिन दफ्तर से बहुत नाराज लौटा। उसकी मां ने उससे पूछा, आज खाने में क्या बनाऊं? निशित उन्हीं पर बरस पड़ा, आप एक दिन अपने मन से खाना नहीं बना सकती क्या? रोज-रोज मेरी परीक्षा क्यों लेती रहती हैं? मां समझ गई कि दफ्तर में कोई बात हो गई होगी, इसलिए वह गुस्से में है। मां ने कहा, तुम्हें अपना दफ्तर अच्छा नहीं लगता, तो छोड़ दो। दूसरी नौकरी मिल जाएगी। बाहर निकलोगे नहीं, तो पता कैसे चलेगा कि बाहर है क्या? निशित ने कहा, अगर यह इतना ही आसान होता, तो दो साल पहले ही छोड़ चुका होता। मां मुस्कराते हुए कहने लगी, बहुत दिनों से गांव नहीं गए हैं। चलो, कुछ दिन गांव होकर आते हैं। थोड़ा मन भी हल्का हो जाएगा। गांव में फोन का नेटवर्क अक्सर गायब हो जाता था, इसलिए फोन कम आते थे। एक सप्ताह में ही निशित का मन काफी शांत हो गया। एक दिन दादा जी उसे गांव घुमाने ले गए। रास्ते में उन्होंने निशित से कहा, तुम अपनी नौकरी से काफी परेशान हो, तो नौकरी छोड़ क्यों नहीं देते? निशित बोला, नौकरी छोड़ना इतना आसान कहां दादा जी? दादा जी बोले, ऐसा क्यों लगता है तुम्हें? और फिर तुम तो अच्छे फोटोग्राफर भी हो। अपना शौक पूरा करो। नौकरी करने की ऐसी भी क्या जरूरत है? निशित बोला, लेकिन यह अच्छी नौकरी है। अच्छी-खासी तनख्वाह है। इसे कैसे छोड़ दूं? दादा जी बोले, जब तक तुम नौकरी छोड़ोगे नहीं, तब तक यह कैसे पता चलेगा कि और क्या-क्या मिल सकता है? क्या पता, तुम अपना ही व्यवसाय शुरू कर सको और इससे कई गुना ज्यादा कमा सको। बेटा, अपने मन और अपने हुनर को बेड़ियों में मत जकड़ो। अच्छा और बुरा यह सिर्फ हमारे देखने का नजरिया होता है।
Moral of the story - अक्सर हम खुद को जिन बंधनों में बांधते हैं, वे हमारे मन के बनाए हुए होते हैं।
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